Saturday 30 April 2011

जरा सोचो वाकई क्या,तुम वीर हो????

शाख से टूटा है पल्लव,
ना जाने कहाँ गिरेगा,
जब तलक था शाख पे,
वो सबकी नज़र में था,
पल्लवों के कारवां में,
थी अपनी दुनिया उसकी,
शाख की थीं तमाम ख़बरें,
वो भी तो हर खबर में था.

टूटने के बाद उसके,
नए पल्लव आ गए,
ये नए पल्लवे क्या जाने?
पूर्वज उनके कहाँ गए?
उन्हें भी जीना पड़ेगा!!!

मौसमों ने रंग बदले,
करवटें ली शाख ने,
जो मजा सावन में था,
वो कहाँ बैशाख में!

पतझड़ की बात न पूछो,
पल्लव सारे बिखर गए,
कुछ गए फिजाओं में,और,
कुछ नालियों में सड़ गए!!

हो नहीं पल्लव तो फिर भी,
नाज़ खुद पे न करो,
आएगा तुमपे भी पतझड़,
थोडा बहुत तो खुदा से डरो?

तुम जहाँ रहते हो यारों,
वो भी तो एक शाख है,
और भी तमाम पल्लव,
तो तुम्हारे साथ हैं,

पल्लवों को बिखेरती है,
आके पतझड़ हर बरस,
पतझड़ में देख शाख को,
तुम्हें आती नहीं क्यूँ तरस,

क्यूँ बरपाते हो पतझड़,
खुद-ब-खुद तुम शाख पे,
क्या मिलेगा तुमको यारों
एक दूजे को मार के!

क्यूँ उठा लिए हैं तुमने,
खुद जनाजे प्यार के,
अपने गमलो में ही फकत,
क्यूँ बहते नीर हो,
इतने स्वार्थी मत बनो,

जरा सोचो वाकई क्या,तुम वीर हो????


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